Thursday, May 17, 2012

संघीय ढांचे पर आघात

भारत संप्रभु राष्ट्र है, यह अनेक राज्यों के समझौते से मिलकर बना संघ नहीं है। प्रधानमंत्री इस राष्ट्र के महाराज नहीं हैं। राज्य स्वतंत्र देश नहीं हैं। मुख्यमंत्री अपने राज्यों के स्वच्छंद शासक नहीं हैं। संविधान सर्वोपरि सत्ता है। केंद्र और राज्य इसी से शक्ति पाते हैं। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सहित सभी संस्थाएं संविधान से ही अधिकार पाती हैं। संविधान सबको शक्ति देता है, सब पर मर्यादाएं भी अधिरोपित करता है। संविधान ही सर्वोच्च राजधर्म-संहिता है। बावजूद इसके प्रधानमंत्री व तमाम मुख्यमंत्रियों का आचरण सामंत जैसा है। प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार के भी संरक्षक बन जाते हैं। केंद्र राज्यों के अधिकार पर हमला करने वाले आतंक निरोधी केंद्र जैसे विधेयक लाता है। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने एक परासंवैधानिक संस्था कैबिनेट सचिव बनाई थी। उनके कार्यकाल में राजकोष से मूर्तियां बनाने सहित एनआरएचएम जैसे हजारों करोड़ के घोटाले हुए। ऐसे आचरण के चलते ही भ्रष्टाचार और कुशासन बढ़ा है, राष्ट्रीयता की भावना भी कमजोर हुई है। राष्ट्रीय अखंडता सर्वोपरि निष्ठा है, लेकिन अधिकांश क्षेत्रीय दल क्षेत्रीयता बढ़ाते हैं और राष्ट्रीयता को कमजोर करते हैं। कांग्रेस राष्ट्रीय दल जैसा आचरण नहीं करती। वह अवसर के मुताबिक क्षेत्रीयता को संरक्षण देती है। शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के लिए अलग निशान, अलग विधान, अलग प्रधान मांगा, कांग्रेस ने दे दिया। लालदेंगा ने राष्ट्रीयता पर हथियारबंद चढ़ाई की, कांग्रेस ने उपकृत किया। तमिल क्षेत्रवाद बढ़ाया था पेरियार ने। उत्तर बनाम दक्षिण का गृहयुद्ध बढ़ाने की कोशिश हुई। केंद्र चुप रहा। आंध्र की एक पार्टी ने स्वयं को तेलगु-देशम बताया। तेलगु देश नहीं भाषा है। तेलगु भाषी भारतीय ही हैं। असम, मणिपुर, नागालैंड सहित समूचे पूर्वोत्तर में क्षेत्रीयता ही राष्ट्रीयता है। मुंबइया राजनीति का क्षेत्रवाद उत्तर भारतीयों पर आक्रामक रहता है। अनेक मुख्यमंत्रीगण क्षेत्रीयता को पोषण देते हैं। वे बहुधा केंद्र पर संघीय ढांचे को तोड़ने का आरोप लगाते हैं, लेकिन संविधान के अनुरूप अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते। संघीय ढांचे का अर्थ मुख्यमंत्रियों की मनमानी नहीं है। इसका सीधा अर्थ है कि केंद्र अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करे और राज्य अपनी जिम्मेदारी निभाए। संविधान का शासन दोनों की जिम्मेदारी है। संप्रग सरकार ने संघीय ढांचे को कमजोर किया है। गैरकांग्रेसी राज्यों की उपेक्षा हुई है। राज्यों के साथ भेदभाव जारी है, लेकिन अनेक मुख्यमंत्रियों ने भी संघीय ढांचे से जुड़े अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन नहीं किया। उच्चतम न्यायालय की 9 न्यायमूर्तियों की पीठ ने भी एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में कहा था कि राज्य संघ के संवैधानिक अभिकर्ता के रूप में उसके निर्देशों के अनुसार कार्य नहीं कर रहे हैं। ताजा उदाहरण मायावती का है। वह अपने पूरे कार्यकाल में एक दफा भी किसी केंद्रीय बैठक में नहीं गईं। शिक्षा का अधिकार लागू करने की केंद्रीय अपेक्षा भी कई राज्यों ने नहीं पूरी की। बावजूद इस सबके संविधान के संघीय ढांचे से ही सबको उम्मीद हैं। नए राज्यों की मांगों में राजनीति के साथ संघीय ढांचे के फायदों के आकर्षण हैं। राज्य अनेक शक्तियां मांग रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की राजनीति स्वायत्ततावादी है, लेकिन 1983 में तमिलनाडु से उछली अधिक स्वायत्तता की मांग में तमाम गैरकांग्रेसी राज्य भी जुड़ गए थे। सरकारिया आयोग की सिफारिशें (1988) भी संघीय ढांचे के पक्ष में थीं और राज्यों का हित मजबूत करने वाली थीं। लेकिन संघीय ढांचे की मजबूती का सारा दारोमदार प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के कर्तव्य निर्वहन पर ही टिका हुआ है। संविधान में राष्ट्र-राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की खूबसूरत सूची (अनुच्देद 36 से 51) है। अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि संविधान का यह हिस्सा न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जा सकता, फिर भी इसके तत्व शासन के मूलाधार हैं। इन्हें कानून बनाने में लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। संविधान निर्माताओं ने हमारे शासकों को तमाम कर्तव्य भी दिए हैं। संविधान के अनुसार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के तत्व सभी संस्थाओं में होने चाहिए। यहां समान नागरिक संहिता भी राज्य का कर्तव्य है। गोवंश संरक्षण और उनका वध रोकना भी नीतिनिर्देशक तत्व हैं। समान नागरिक संहिता पर केंद्र ने अपना फर्ज नहीं निभाया। गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि के मुख्यमंत्रियों ने गोवंश वध निषेध पर पहल की थी, लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों के मुख्यमंत्रियों ने इस निदेशक तत्व की अवहेलना की। राज्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार रोकने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्रियों की ही है, लेकिन ढेर सारे पूर्व मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। लोक व्यवस्था व पुलिस राज्यों का विषय है। लेकिन पुलिसतंत्र मुख्यमंत्री की पार्टी की निजी पलटन बन जाता है। पीडि़तों को सुरक्षा नहीं मिलती। संविधान ने राज्यों को तमाम अधिकार दिए हैं। मुख्यमंत्री ही राज्य का प्रमुख शासक है। वह सरकार का वास्तविक प्रधान है। लोकव्यवस्था, कृषि, जनस्वास्थ, भूमि और भूमि सुधार, सिंचाई, खनिज विकास, राज्य लोकसेवाएं, भू-राजस्व आदि अनेक विषय राज्य सूची में हैं, लेकिन क्षेत्रीय दल चलाने वाले मुख्यमंत्री राजनीति को सर्वोपरि महत्व देते हैं। तब पार्टी और सरकार एक हो जाते हैं। प्रशासनिक संवेदनशीलता का नामोनिशान नहीं होता। कुछ मुख्यमंत्रियों के अपने प्रिय औद्योगिक घराने और पालतू माफिया होते हैं। भ्रष्टाचार का संस्थागत हो जाना इसी संकीर्ण राजनीति का परिणाम है। वे अपनी क्षेत्रीय ताकत के अनुसार केंद्र को चुनौती देते हैं। केंद्र मोलभाव करता दिखाई पड़ रहा है। वे धमकाते हैं, केंद्र डर जाता है। केंद्र सीबीआइ जांच का डर दिखाता है, वे सौदा कर लेते हैं। भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। न्यायालयों के हस्तक्षेप से ही कार्रवाई होती है। तमाम मुख्यमंत्री अपना कर्तव्य नहीं निभाते, केंद्र गठबंधन राजनीति को कोसता है और गठबंधन से ही सत्ता चलाता है। राष्ट्र स्थायी सत्य है और राष्ट्रीयता स्थायी राष्ट्रधर्म। मुख्यमंत्री इसी राष्ट्र की माननीय संवैधानिक संस्था हैं। मुख्यमंत्रियों को राष्ट्रभाव संव‌र्द्धन का काम करना चाहिए। शोषण और भ्रष्टाचार मुक्त शासन उन्हीं की जिम्मेदारी है। उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में भ्रष्टाचार की बाढ़ है। कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है। राजकोष लुट रहा है। वे क्षेत्रीय, जातीय सवाल उठाकर ताकत बढ़ाते हैं। आम आदमी पीडि़त है। आखिरकार विभिन्न राज्यों में बढ़ रहे भ्रष्टाचार का मुख्य दोषी कौन है? लोकसेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने की जिम्मेदारी है किसकी? मुख्यमंत्री अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।
...............BY Hriday Narayan Dixit..............published in dainik jagran

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