Tuesday, June 5, 2012

............Article on forest.................कटते वन, घटता धरती का आवरण प्रमोद भार्गव राष्ट्र की अद्वितीय और अटूट प्राकृतिक संपदा तथा आदिम जातियों की आजीविका के प्रमुख साधन रहे जंगल समूचे भारत में तेजी से लुप्त हो रहे हैं। देश का वन विभाग अब तक यह दावा करता रहा था कि भारत के कुल भू-भाग में 19 प्रतिशत जंगल हैं, लेकिन हाल ही में भारतीय वन सर्वेक्षण ने खुलासा किया है कि बीते 10 साल के भीतर 3000 वर्ग किमी जंगलों का सफाया हो चुका है। अगर यही रफ्तार रही तो सौ सालों में दो तिहाई घने जंगल नष्ट हो जाएंगे। इसके पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने उपग्रह के माध्यम से दुनिया भर के जंगलों के छायाचित्र लेकर एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें सरकारी दावों को पूरी तरह झुठलाते हुए दावा किया गया था कि देश में केवल आठ प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित रह गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 3290 लाख हेक्टेयर में फैले भू-क्षेत्र में 1989 तक 19.5 भू-भाग में जंगल थे, जिनकी कटाई 15 लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से जारी रही। नतीजतन ये वन घटकर केवल आठ फीसदी बताए गए थे। वनों का आकलन दस साल पहले की रिपोर्ट में दर्शाए गए आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन से होता है। दस साल पहले देश में कुल 7.83 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में वन थे, जो अब घटकर 24 फीसदी शेष बचे हैं। इनका विनाश विकास के बहाने औद्योगीकरण की भेंट चढ़ गया। इस रिपोर्ट के अनुसार बीते दो साल के भीतर ही 367 वर्ग किमी वन्य क्षेत्र नष्ट हो गया। इसके चलते देश के कुल क्षेत्रफल में जंगल और पेड़ों की मौजूदगी घटकर 23.81 फीसदी रह गई है, जो 33 फीसदी होनी चाहिए थी। इस स्थिति ने जंगल से जुड़े 20 करोड़ लोगों की आजीविका पर संकट के बादल गहरा दिए हैं। आधुनिक और औद्योगिक विकास के चलते पहले भी करीब 4 करोड़ वनवासियों को विस्थापित करके उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। ऐसा नहीं है कि वन केवल हमारे देश में ही नष्ट हो रहे हैं? दुनिया भर में तेजी बढ़ रही आबादी के दबाव और मनुष्य द्वारा वन संपदा से ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की लालसा के कारण पूरी दुनिया में जंगलों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। पिछले दस सालों के भीतर वन विनाश में तेजी आई है। ब्राजील में 17 हजार, म्यांमार में 8 हजार, इंडोनेशिया में 12 हजार, मेक्सिको में 7 हजार, कोलंबिया में 6 हजार पांच सौ, थाईलैंड में 6 हजार और भारत में भी 4 हजार प्रति वर्ग किमी के हिसाब से वनों का विनाश हो रहा है। वनों के इस महाविनाश का सबसे ज्यादा खामियाजा हमारे देश को उठाना होगा, क्योंकि जैव विविधता की दृष्टि से सबसे ज्यादा भारत संपन्न देश है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि भारत की जलवायु में विविधता है और भौगोलिक बनावट में भी भिन्नता है। करीब 3290 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हमारे देश में एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र में शीतल और तरल जलवायु वाला हिमालय का भूखंड है। दूसरी तरफ राजस्थान और गुजरात के रेगिस्तान हैं। जहां केवल 20 सेंटीमीटर एक साल में औसत वर्षा होती है। इसके ठीक विपरीत असम के कुछ ऐसे भू-भाग हैं, जहां वर्षा का वार्षिक औसत 1100 सेमी है। लगभग 7500 किमी लंबे हमारे समुद्र तट हैं, जहां समुद्री जीव और वनस्पतियों का अनूठा भंडार है। जंगलों के विनाश के कारण भू-क्षरण में भी तेजी आई है। दुनिया में 2600 करोड़ टन मिट्टी की पृथ्वी पर ऊपरी परत है, जो बरसात में जल धाराओं से कटाव आ जाने के कारण निरंतर समुद्र में समाती जा रही है। देश में भू-क्षरण की रफ्तार 1200 करोड़ टन है। लिहाजा, प्रति मिनट पांच हेक्टेयर भूमि का क्षरण हो रहा है। प्रत्येक बरसात में एक हेक्टेयर भूमि में से 16.35 टन मिट्टी बह जाती है। यदि इस दिशा में सुधार नहीं किया गया तो अगले 20 सालों में एक तिहाई कृषि भूमि नष्ट हो जाने की आशंका है। वर्तमान में अकेले भू-क्षरण के कारण प्रति वर्ष 2800 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। पूरी दुनिया में जीवों और वनस्पतियों की एक करोड़ प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें अभी तक 14 लाख जीवों और वनस्पतियों की पहचान कर उन्हें सूचीबद्ध किया गया है। इनमें से 50 से लेकर 90 प्रतिशत प्रजातियां भारत के जंगलों में पाई जाती हैं। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत के जंगल कितने उपयोगी हैं, लेकिन अफसोस कि बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हो रही है। वन माफिया तो वनों के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है। अगर वनों के विनाश को सख्ती से काबू नहीं किया जाता तो हालात विकराल होना तय है।


पर्यावरण चौपट कर रहा इस्पात व लौह उद्योग
 नई दिल्ली भारत की स्टील और लौह अयस्क कंपनियों की पहली बार की गई पर्यावरण रेटिंग में इस्पात इंडस्ट्रीज को पहले स्थान पर जगह मिली है। प्रतिष्ठित गैर-सरकारी संगठन विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) की ओर से किए गए इस आकलन में एस्सार स्टील और राष्ट्रीय इस्पात निगम को दूसरे और तीसरे स्थान पर जगह मिली है। वैसे, इस रेटिंग को जारी करते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने माना कि पर्यावरण मानकों को लागू करने के लिहाज से इस उद्योग की स्थिति बेहद बुरी है। जयंती के मुताबिक, उन्हें यह देखकर बेहद हैरानी हो रही है कि अपने देश का इस्पात और लौह अयस्क (आयरन ओर) उद्योग पर्यावरण के मानकों पर इतना पीछे है। सरकार इस स्थिति को ठीक करने के लिए न सिर्फ नियमों को और मजबूत करेगी, बल्कि इनकी निगरानी व्यवस्था को भी दुरुस्त करेगी। इस रेटिंग के दौरान यह भी पता चला है कि ये कंपनियां आसानी से पर्यावरण अनुकूल उपाय अपना सकती हैं। इसके लिए जरूरी तकनीक बेहद आसानी से उपलब्ध है। यहां तक कि ऐसी तकनीक इनके लिए आर्थिक रूप से भी फायदेमंद है। इसके बावजूद अधिकांश कंपनियां साहस नहीं दिखा रही हैं। सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि देश की शीर्ष 21 स्टील निर्माता कंपनियों का 150 तरह के पर्यावरण संबंधी मानदंडों पर मूल्यांकन किया गया। लेकिन इस उद्योग को कुल मिलाकर 19 फीसद अंक ही मिले, जबकि यह उद्योग देश की भूमि, जल और कच्चा माल जैसे संसाधनों को बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करता है। भारत में ये कंपनियां जितनी बिजली का इस्तेमाल करती हैं, वह अंतरराष्ट्रीय मानकों से 50 फीसद ज्यादा है। इसी तरह पानी की खपत भी ये तीन गुना ज्यादा करती हैं। नारायण ने पारदर्शिता नहीं दिखाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी सेल की जोरदार आलोचना भी की।

2023 तक होगी मंगल पर मानव बस्ती!
वेलिंगटन, एजेंसी : यूरोपीय देश नीदरलैंड्स ने आने वाले सिर्फ अगले ग्यारह सालों में अपने चार अंतरिक्ष यात्रियों को मंगल ग्रह पर बसने के लिए भेजनी की तैयारी कर ली है। मार्स-वन नामका ये अंतरिक्षयान वर्ष 2023 में केवल पृथ्वी से मंगल ग्रह का सफर करेगा। यानी यह कभी धरती पर वापस लौटेगा नहीं। यह एक निजी कंपनी का अंतरिक्ष अभियान है। इस अभियान को मूर्तरूप देने वालों में हैं डच उद्योगपति और अनुसंधानकर्ता बास लैंड्सडार्प। लैंड्सडार्प इससे पहले एक वैकल्प ऊर्जा संबंधी कंपनी भी चलाते रहे हैं। हालांकि यह अभियान अन्य निजी कंपनियों की तरह अभी उतने परिष्कृत रूप में सामने नहीं आया है जिस तरह अरबपति मस्क, पॉल एलन या जेफ बेजोस ने अपने स्पेस ट्रैवल संबंधी अभियान की शुरुआत की थी। मंगल ग्रह पर पहली मानव बस्ती बसाने के लिए पहले चरण के तहत वर्ष 2016 में सबसे पहला अभियान भेजा जाएगा। इसमें केवल संचार संबंधी उपग्रह भेजे जाएंगे। वर्ष 2018 में दूसरा अंतरिक्ष रोवर यान भेजा जाएगा। यह केवल लाल ग्रह के रूखे-सूखे माहौल में कुछ चुनिंदा सबसे अच्छे स्पॉट ढूंढेगा जहां मानव बस्ती बसाई जा सके। फिर तीसरे चरण में वर्ष 2020 में मंगल पर सोलर पैनल समेत मानव बस्ती बनाने संबंधी सामान लाल ग्रह पर भेजा जाएगा। इसमें वह मशीनें भी शामिल हैं जो लाल ग्रह को इंसानों के योग्य बनाने के लिए वहां मंगल ग्रह के मूल तत्वों को ऑक्सीजन और जल में परिवर्तित करेगी। इसके बाद ही 14 सितंबर 2022 को मंगल ग्रह पर चार अंतरिक्ष यात्रियों को हमेशा के लिए वहां बसने को भेजा जाएगा। उन्हें वहां नई बस्ती बनाने में दस महीने लगेंगे। हालांकि इसका प्रशिक्षण उन्हें दशकों से दिया जा रहा है। इन अंतरिक्ष यात्रियों का सबसे कड़ा परीक्षण यही होगा कि जब आप वहां बिना नहाए महीनों तक कठिन परिस्थितियों में रह रहे हों और अपना संतुलन बनाए रखते हुए किसी की हत्या न कर बैठें। लैंड्सडार्प की योजना है कि वह कठिन चुनौतियों के लिए तैयार ऐसे कुछ अंतरिक्ष यात्रियों को हर दो साल पर मंगल ग्रह पर बनने वाली मानव बस्तियों में भेजेंगे। लेकिन वहां जाने वाले को कभी भी धरती पर वापस नहीं बुलाया जाएगा। ये पूरी तरह से एक नई दुनिया होगी। इस मिशन का पूरा खर्च मीडिया स्पेटकल नामक कंपनी उठाएगी।

आर्कटिक में गर्मी से टुंड्रा की झाडि़यां बनीं पेड़
 उत्तरी ध्रुव में स्थित आर्कटिक क्षेत्र में टुंड्रा सर्वाधिक ठंडा क्षेत्र होने के कारण वहां कभी पेड़ नहीं पाए जाते। लेकिन आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहां की वनस्पतियों में भी जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। वहां पर हमेशा से ही बमुश्किल छोटी झाडि़यां पनपती थीं। लेकिन पिछले कुछ दशकों से इन झाडि़यों का कद इतना बढ़ गया है कि वह पेड़ के आकार की हो गई हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि नए शोध में पाया गया है कि टुंड्रा के फिनलैंड और पश्चिमी साइबेरिया के बीच करीब दस से पंद्रह फीसदी भूमि पर पेड़ के आकार की नई झाडि़यां उग आई हैं। इनका कद 6.6 फीट से भी ऊंचा है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के बायोडायवर्सिटी इंस्टीट्यूट के अनुसंधानकर्ता मार्क मेकस फ्यूरिया ने बताया कि सिर्फ तीस साल पहले तक टुंड्रा क्षेत्र में किसी ने पेड़ कभी देखे तक नहीं थे। उनका कहना है कि आर्कटिक क्षेत्र में ही कभी 3.3 फीट से ऊंची झाडि़यां कभी नहीं हुईं जोकि करीब एक रेनडीयर (एक प्रकार का हिरण) के कद की होती हैं। लेकिन वैज्ञानिकों ने पर्यावरण में इस बड़े बदलाव पर तब ध्यान केंद्रित किया जब स्थानीय लोगों ने कहा कि अब उन्हें रेनडीयर दिखना बंद हो गए हैं। पर्यावरण में बदलाव के कारणों को समझने के लिए उत्तरी पश्चिमी यूरेशियाई टुंड्रा इलाके में वैज्ञानिकों के दल ने स्थानीय लोगों और चरवाहों और वेधशालाओं की मदद से इन इलाकों के तापमान के आंकड़े, जंगलों में झाडि़यों के बढ़ने के उपग्रहों से एकत्र आंकड़े जुटाए। इसके अलावा उन्होंने यह भी मालूम किया कि इन इलाकों में हरियाली का इलाका पहले कितना अधिक बढ़ा है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस शोध में बताया गया है कि ज्यादातर नई झाडि़यां हर वर्ष जुलाई के महीने में उगी हैं। अनुसंधानकर्ता मैसिया फुरिया का कहना है कि पहले यहां नन्हीं झाडि़यों या घास से अधिक कुछ इसलिए नहीं उग पाता था क्योंकि ऊंचे कद के साथ वनस्पति का पर्यावरण की दुरुह स्थितियों का सामना कर पाना संभव नहीं था। लेकिन अब तापमान पहले की अपेक्षा बहुत घट गया है। टुंड्रा के इस इलाके में पर्यावरण परिवर्तन की यह बानगी भर है। बाकी इलाकों का क्या हाल है इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है।

15000 पादप प्रजातियां खत्म!
 मानवीय चूक ने ग्लोबल वॉर्मिग की चक्रीय गति को तेज कर दिया है! जी हां, वैज्ञानिकों की शोध रिपोर्ट पर गौर करें तो वैश्विक चुनौती को इंसान ने ही चौगुना कर दिया है। नतीजतन बेतहाशा तापवृद्धि व जलवायु परिवर्तन से कुछ ही अंतराल में रबी व खरीफ की फसल में 50 से 70 फीसद गिरावट आई है। विज्ञानी आगाह करते हैं, यदि हिमालयी क्षेत्र में तापमान वृद्धि पर जल्द नियंत्रण न किया गया तो 15 वर्ष के भीतर 10 से 15 वनस्पति प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। दरअसल, ग्लोबल वॉर्मिग नैसर्गिक प्रक्रिया है। फिलवक्त दुनिया ग्लोबल वॉर्मिग के पांचवें दौर से गुजर रही है। एक चक्र लाखों साल में पूरा होता है। मगर मानवीय गतिविधियों मसलन, वनों का अंधाधुंध दोहन, दावाग्नि व क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों के बेतहाशा उत्सर्जन ने चक्रीय गति को काफी बढ़ा दिया है। उत्तराखंड सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज (यूसीसीसी) के समन्वयक एवं वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रो.जेएस रावत के अनुसार तापमान लगातार बढ़ रहा है और यह सिलसिला नहीं थमा तो आने वाले 15 सालों में 10 से 15 फीसद वनस्पतिक प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी। यानी हर साल तापवृद्धि से ही एक प्रजाति इतिहास बनेगी। प्रो.रावत इस चुनौती से पार पाने को भू-गणित के अध्ययन की वकालत भी करते हैं, ताकि पर्यावरण को मजबूत कवच मिल सके। बकौल प्रो.रावत तापमान वृद्धि के लिए अकेली कार्बन गैस जिम्मेदार नहीं है। मानव जनित करीब दर्जन भर क्रियाकलाप जलवायु परिवर्तन में नकारात्मक रोल अदा रहे हैं। भूगर्भीय प्लेटों से भी तापवृद्धि विज्ञानियों के मुताबिक भूगर्भीय प्लेटों के खिसकने से भी गर्मी बढ़ती है। यही नहीं पृथ्वी के घूमते वक्त आकार में परिवर्तन अर्थात कभी अंडाकार तो कभी वृत्ताकार रूप में आने आदि कारण भी तापमान वृद्धि में सहायक साबित होते हैं। पर्यावरणीय आघात से मानवीय मनोविज्ञान प्रभावित जलवायु परिवर्तन में क्लाइमेट शॉक यानी पर्यावरणीय आघात भी पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहा है। इससे फसल चक्र व मानवीय मनोविज्ञान एवं पेड़-पौधे भी प्रभावित हो रहे हैं। वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रो.जेएस रावत का कहना है कि जलवायु परिवर्तन को सही परिपेक्ष्य में समझना होगा और जियोग्रेफिक इनफॉर्मेशन सिस्टम (जीआईएस) व जियोग्रेफिक पोर्टल सिस्टम (जीपीएस) पर आधारित शोध की महती जरूरत है। अमूमन विश्व के ज्यादातर वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को ग्लोबल वॉर्मिग से जोड़ते हैं। मगर इसके हर पहलू को सही परिपेक्ष्य में समझना होगा। हिमालयी क्षेत्र में .74 डिग्री तापमान में वृद्धि तथा रात में तापमान शून्य तो दिन में एकाएक 26 डिग्री के पार पहुंचना भी कहीं न कहीं पर्यावरणीय खतरे के प्रति आगाह करता है।

Sunday, June 3, 2012


दक्षिण चीन सागर में स्वतंत्रता चाहता है भारत
सिंगापुर, एजेंसी : भारत दक्षिण चीन सागर में परिवहन की स्वतंत्रता चाहता है। हालांकि, इस क्षेत्र में बीजिंग का कई देशों के साथ सीमा विवाद चल रहा है। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सिंगापुर के रणनीतिक अध्ययन अंतरराष्ट्रीय संस्थान की 11वीं एशियाई सुरक्षा बैठक में यह मांग रखी। उन्होंने कहा कि क्षेत्र पर मौजूद विवादों को नजरअंदाज करते हुए आम सहमति बनाने की जरूरत है। एंटनी ने दक्षिण चीन सागर में सीमा विवाद पर कहा कि भारत मसले पर चर्चा करने वाले सभी दलों का स्वागत करता है। हमें उम्मीद है कि यह मुद्दा बातचीत के जरिये सुलझा लिया जाएगा। वियतनाम के तेल उत्खनन कारोबार में भारत के दखल को चीन ने गलत नजरिये से लिया। इसके बाद चीन ने जलक्षेत्र में भारतीय जहाजों के प्रवेश पर विरोध जताया। एंटनी ने कहा कि समुद्री सुरक्षा का मसला कारोबार, वाणिज्यिक, हाइड्रोकार्बन स्रोत, आतंकवाद, समुद्री लूट और ड्रग तस्करी के लिहाज से अब रणनीतिक प्राथमिकता बन चुका है। एंटनी ने चीन और दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के संगठन से समुद्री सीमाओं का मसला आपसी बातचीत, सहमति और अंतरराष्ट्रीय कानून के पालन के जरिये सुलझाने की मांग की। रक्षा मंत्री ने चीन द्वारा रक्षा खर्च में लगातार की जा रही बढ़ोतरी पर चिंता जताई, लेकिन कहा कि नई दिल्ली को बीजिंग से कोई खतरा नहीं है। उन्होंने बताया कि दोनों देशों की सेनाओं के बीच सहयोग शुरू हो चुका है। जल्द नौसेना स्तर पर भी सहयोग शुरू हो जाएगा। उन्होंने बताया कि एंटी-पायरेसी पर सूचनाओं के आदान-प्रदान पर भी जल्द ही सहमति बनने के आसार हैं।
...........Energy crisis in india.............{imp for mains}
सस्ती व सतत ऊर्जा किसी भी देश की तरक्की के लिए सर्वाधिक जरूरी संसाधन है। किसी भी देश के लिए ऊर्जा सुरक्षा का मतलब है कि वर्तमान और भविष्य आवश्यकता की पूर्ति इस तरीके से हो कि सभी लाभान्वित हों और पर्यावरण पर भी कोई कुप्रभाव न पड़े। इस संदर्भ में गुजरात ने एक मिसाल कायम की है। पिछले दिनों गुजरात में 600 मेगावाट के सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना भारत ही नहीं पूरे एशिया के लिए एक उदाहरण है। देश में सौर संयंत्रों से कुल 900 मेगावाट बिजली पैदा होती है। इसमें 600 मेगावाट अकेले गुजरात बना रहा है। गुजरात ने नहर के ऊपर सौर ऊर्जा संयंत्र लगा कर अनूठी मिसाल कायम की है। इससे बिजली तो बनेगी ही, पानी का वाष्पीकरण भी रुकेगा। नहर पर छत की तरह तना यह संयंत्र दुनिया में पहला ऐसा प्रयोग है। पिछले दो माह में दो लाख यूनिट बिजली का इससे उत्पादन किया जा चुका है। गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थापित यह संयंत्र 16 लाख यूनिट बिजली का हर साल उत्पादन करेगा। साथ ही वाष्पीकरण रोककर 90 लाख लीटर पानी भी बचाएगा। संयंत्र की लागत भी लगभग 12 करोड़ रुपये है। गुजरात में नर्मदा सागर बांध के नहरों की कुल लंबाई 19 हजार किलोमीटर है और अगर इसका दस प्रतिशत भी इस्तेमाल होता है तो 2400 मेगावाट स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकेगा। नहरों पर संयंत्र स्थापित करने से 11 हजार एकड भूमि अधिग्रहण से बच जाएगी और दो अरब लीटर पानी की सालाना बचत अलग से होगी। यह प्रयोग अन्य राच्यों में भी अपनाया जा सकता है। बढ़ती आबादी और विकास को गति देने के लिए ऊर्जा की मांग दिनोंदिन बढ़ रही है। दुर्भाग्यवश ऊर्जा के हमारे प्राकृतिक संसाधन बहुत सीमित हैं। हमें बहुत सा पेट्रोलियम आयात करना पड़ता है। हमारे यहां आवश्यकता के अनुरूप विद्युत का उत्पादन नहीं हो पा रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का यह विचार काफी मायने रखता है कि तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक की तर्ज पर भारत के नेतृत्व में सौर ऊर्जा की संभावना वाले देशों का संगठन सूर्यपुत्र देश बनाया जाए। जब जी-8, दक्षेस, जी-20 और ओपेक जैसे संगठन बन सकते हैं तो सौर ऊर्जा की संभावना वाले देशों का संगठन क्यों नहीं बन सकता? भारत ऐसे देशों के संगठन का नेतृत्व कर सकता है और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में शक्ति बनकर अपना दबदबा भी कायम कर सकता है। भारत में सौर ऊर्जा की असीम संभावनाएं है। गुजरात से प्रेरणा लेकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राच्यों को भी पहल करनी चाहिए। ये राच्य भी बिजली के संकट से जूझ रहे हैं, जबकि धूप यहां साल में आठ महीने रहती है। मध्यप्रदेश सरकार ने भी इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए सौर ऊर्जा के लिए भूमि बैंक की स्थापना के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। महाराष्ट्र सरकार ने भी उस्मानाबाद व परभणी में 50-50 मेगावाट के दो संयंत्र लगाने की पहल प्रारंभ की है। वर्तमान में ऊर्जा आपूर्ति के लिए गैर नवीकरणीय ऊर्जा Fोतों जैसे कोयला, कच्चा तेल आदि पर निर्भरता इतनी बढ़ रही है कि इन Fोतों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगले 40 वर्षो में इन Fोतों के खत्म होने की संभावना है। ऐसे में विश्वभर के सामने ऊर्जा आपूर्ति के लिए अक्षय ऊर्जा Fोतों से बिजली प्राप्त करने का विकल्प ही बचता है। अक्षय ऊर्जा नवीकरणीय होने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल भी है। हमें घरेलू, औद्योगिक और कृषि क्षेत्र में जरूरी ऊर्जा की मांग को पूरा करने के लिए दूसरे वैकल्पिक उपायों पर भी विचार करने की आवश्यकता है। भारत में अक्षय ऊर्जा के कई Fोत उपलब्ध हैं। सुदृढ़ नीतियों द्वारा इन Fोतों से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है
..........dainik jagran................